मौन……
एक फकीर का एक गाँव में आगमन हुआ। एक दिन गाँव के लोगों ने उस फकीर को बोलने के लिए आमंत्रित किया और वो राजी हो गया। पहली बार वो गाँव के लोगों से मुखातिब हुआ और मंच से उसने पूछा कि दोस्तों क्या तुम्हें पता है कि मैं किस विषय पर बोलने आया हूँ? लगभग सारे लोगों का उत्तर “ना” में था। फकीर ने कहा जब आप लोगों को ये तक पता नहीं कि किस विषय पर व्याख्यान होना है, तो आप जैसे लोगों से क्या बोलना और यह कहकर वो चल दिया। दूसरी बार किसी तरह उस फकीर को व्याख्यान के लिए तैयार किया गया और फिर जब वो मंच पर आया तो उसने फिर पूछा कि दोस्तों क्या आप जानते हैं कि मैं आज किसके बारे में बताने आया हूँ? इस बार पहली गलती को ध्यान में रखते हुए सब ने कह दिया कि “हाँ” हम जानते हैं। फिर उस फकीर ने कहा कि जब आप जानते ही हैं तो फिर कुछ भी बोलना व्यर्थ है क्योंकि आप सभी ज्ञानी हैं और वो फिर मंच से उतरकर चल दिया। गाँव वालों ने योजना बनाई थी कि अबके “ना” कोई भी नहीं कहेगा लेकिन “हाँ” भी व्यर्थ चली गयी। फिर सब लोग उस फकीर के पास आमंत्रण लेकर पहुंचे और बोले हमसे भूल हो गयी कृपया आप आयें और हमें कुछ उपदेश दें। वो तो फकीर था ही, अपनी करुणा के कारण वो फिर आया और आते ही उसने फिर पूछा कि क्या आपको पता है कि आज मैं क्या बोलने वाला हूँ? आधे लोगों ने कहा “हाँ” और आधे लोगों ने “ना” में उत्तर दिया। वो फकीर फिर बोला कि जिनको पता है, वो उन लोगों को बता दें जिन्हें पता नहीं हैं। मेरा कुछ कहना व्यर्थ ही जाएगा, अब बोलने का कोई मलतब ही ना बचा और वो फिर मंच से उतरकर चल दिया।
चौथी बार उस गाँव के लोगों की हिम्मत नहीं हुई कि उस फकीर को आमंत्रित करें क्योंकि गाँव वालों के पास तीन ही उत्तर थे, जो वो दे चुके थे और वो तीनों ही व्यर्थ गए। चौथा उत्तर उन लोगों के पास था ही नहीं।
मेरे प्यारे दोस्तों ये प्रश्न हम सबके लिए ही है:
“क्या आपके पास है चौथा उत्तर?
दोस्तों ये चौथा उत्तर वो उत्तर है जो ना तो किसी शास्त्र में मिलेगा और ना ही किसी ग्रंथ में। दुनिया के किसी भी मंदिर, मस्जिद या तीर्थ में ये उत्तर नहीं मिलने वाला। जीवन को जानने के लिए कहो या सत्य तक पहुँचने के लिए, परमात्मा की खोज हो या स्वयं की खोज या फिर आनंद की तलाश, इन सबके लिए वो चौथा उत्तर जरूरी है जो उस गाँव वालों की तरह हमारे पास भी नहीं है। यदि वो उत्तर उस गाँव के लोगों ने दिया होता तो वो फकीर बहुत कुछ दे जाता उनको। वो चौथा उत्तर था उनका चुप रह जाना अर्थात “मौन” है वो चौथा उत्तर। जो मौन होना जान जाए, उसका जानना शुरू हो जाता है। हम बोलने में समर्थ है लेकिन चुप रहने में नहीं। हम शब्दों के साथ खेलने में समर्थ हैं, इसलिए जीवन गंवा देते हैं। जानने के लिए मौन प्रवर्ति चाहिए लेकिन हम तो बोलते ही रहते हैं, जब जागे हों तब भी और जब सोये हों तब भी। सुन केवल वही पाता है जो वास्तव में चुप है, मौन में उतर गया है। जो अपने भीतर भी बोल रहा है वो कैसे कुछ सुन सकेगा? ईश्वर, आत्मा, परमात्मा जैसे शब्द हमारे लिए केवल शब्द ही हैं, हमारा अनुभव नहीं क्योंकि अनुभव होता है मौन में। और मौन रहना हमें कभी आया ही नहीं क्योंकि शब्द तो जन्मों से इकट्ठा किए हैं हमने और जन्मों फिर दोहराये है हमने। बल्कि सच कहा जाए तो ये कहना अनुचित नहीं होगा कि ईश्वर, आत्मा-परमात्मा जैसे शब्द भी हमारे भय या झूठे संतोष के प्रतीक हैं, इनसे कभी वास्ता नहीं पड़ा हमारा। कभी इनको अनुभव किया जाए ऐसा सोचा ही नहीं हमने। कभी प्रार्थना भी की तो ईश्वर को निर्देश दिये हैं हमने कि ये जो मेरे साथ हो रहा है, ये गलत है, इसे सही कर। जो हो रहा है वो गलत है, और तू वो कर जो मैं कह रहा हूँ। अरे ये प्रार्थना है या आदेश? मौन ही असली प्रार्थना है।
सोचिए जरा कि कभी वास्तव में प्रार्थना में उतरे हैं या हमेशा उधार के शब्दों का ही सहारा लिया है उस परमपिता को आदेशित करने के लिए? ये उत्तर भी भीतर के मौन से ही मिलेगा......................
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