क बहुत समृद्ध महिला अपने चिकित्सक के पास गई। बीमारी उसकी ठीक हो गई थी, चिकित्सक को उसकी फीस चुकाने गई थी। तो उसने एक बहुमूल्य रत्नजटित झोले में कुछ रखकर चिकित्सक को भेंट किया।
चिकित्सक ने कहा कि यह तो ठीक है, लेकिन मेरी फीस का क्या? न तो चिकित्सक समझ सका कि रत्नजटित है, उसने तो समझा कि है बस कांच। कौन रत्नजटित झोले देता है भेंट! और यह महिला सस्ते में निकली जा रही है। उसने हिसाब लगा रखा था, कम—से—कम तीन सौ रुपये उसकी फीस थी। और यह झोला देकर ही बची जा रही है। तो उसने कहा कि झोला तो ठीक है, तुम्हारे प्रेम का उपहार स्वीकार करता हूं लेकिन मेरी फीस का क्या?
उस महिला ने पूछा. तुम्हारी फीस कितनी है? तो ज्यादा से ज्यादा जो वह बता सकता था, उसने कहा, तीन सौ रुपया।
उस महिला ने झोला खोला, उसमें कम—से—कम दस हजार के नोट थे, तीन सौ रुपये निकाल कर चिकित्सक को दे दिए, बाकी रुपये और झोला लेकर वह वापिस चली गई। अब उस चिकित्सक पर क्या गुजरी होगी, तुम सोचते हो! उस दिन के बाद बीमार ही हो गया होगा। उस दिन के बाद फिर उसकी चिकित्सा मुश्किल हो गई होगी। कितना न पछताया होगा! दस हजार रुपये लेकर आयी थी महिला देने और यह तो उसे बाद में पता चला मित्रों से कि वे कांच के टुकड़े न थे, हीरे—जवाहरात थे। मगर उसने सोचा था कि तीन सौ बहुत बड़ी—से—बड़ी फीस।
मांगोगे भी तो क्या मांगोगे? बड़ी से बड़ी मांग भी बड़ी छोटी—से—छोटी होगी, खयाल रखना। इसलिए न मांगो तो अच्छा। वह जो दे, अहोभाव से स्वीकार कर लेना। फायदे में रहोगे। मांगोगे, नुकसान में पड़ोगे। और दुर्भाग्य ऐसा है कि शायद तुम्हें कभी पता भी नहीं चलेगा कि तुम्हें क्या मिल सकता था और क्या मांगकर तुम लौट आए! क्या पा सकते थे, पता भी न चलेगा। उस चिकित्सक को तो खैर पता भी चल गया, तो दुबारा ऐसी भूल न करेगा। मगर तुम्हें पता भी न चलेगा। कौन तुम्हें बताएगा?
No comments:
Post a Comment