Tuesday, 29 March 2016

"अस्तित्व के साथ जियो और चीजोें को खुद अपने आप घटने दो। यदि कोई तुम्हारा सम्मान करता है,तो यह उसका ही निर्णय है, तुम्हारा उससे कोई संबंध नही। यदि तुम उससे अपना संबंध जोड़ते हो,तो तुम असंतुलित और बेचैन हो जाओगे, और यही कारण है कि यहाँ हर कोई मनोरोगी है। और तुम्हारे चारों तरफ घिरे बहुत से लोग तुमसे यह अपेक्षाएँ कर रहे हैं कि तुम यह करो, वह मत करो। इतने सारे लोग और इतनी सारी अपेक्षाएँ और तुम उन्हे पूरा करने की कोशिश कर रहे हो। तुम सभी लोगों और उनकी सभी अपेक्षाओं को पूरा नही कर सकते। तुम्हारा पूरा प्रयास तुम्हे एक गहरे असंतोष से भर देगा और कोई भी संतुष्ट होगा ही नही। तुम किसी को संतुष्ट कर ही नही सकते, केवल यही संभव है कि केवल तुम स्वयम् ही संतुष्ट हो जाओ। और यदि तुम अपने से संतुष्ट हो गये, तब थोड़े से लोग तुमसे संतुष्ट होंगे, लेकिन इससे तुम्हारा कोई संबंध न हो।
तुम यहाँ किन्ही और लोगों की अपेक्षाओं को पूरा करने, उनके नियमों और नक्शों के अनुसार उन्हे संतुष्ट करने के लिये नही हो। तुम यहाँ अपने अस्तित्व को परिपूर्ण जीने के लिये आये हो। यही सभी धर्मों में सबसे बड़ा और पूर्ण धर्म है कि तुम अपने होने में परिपूर्ण हो जाओ । यही तुम्हारी नियति या मंजिल है, इससे च्युत नही होना है। इससे बढ़कर और कुछ मूल्यवान नही।
किसी का अनुगमन और अनुसरण न कर अपने अन्त: स्वर को सुनो। एक बार भी यदि तुमने अपने अन्त: स्वर का अनुभव कर लिया, तो फिर नियमों और सिद्धाँतों की कोई जरूरत रहेगी ही नही। तुम स्वयम् अपने आप में ही एक नियम बन जाओगे।"

Tuesday, 15 March 2016



मौन……
एक फकीर का एक गाँव में आगमन हुआ। एक दिन गाँव के लोगों ने उस फकीर को बोलने के लिए आमंत्रित किया और वो राजी हो गया। पहली बार वो गाँव के लोगों से मुखातिब हुआ और मंच से उसने पूछा कि दोस्तों क्या तुम्हें पता है कि मैं किस विषय पर बोलने आया हूँ? लगभग सारे लोगों का उत्तर “ना” में था। फकीर ने कहा जब आप लोगों को ये तक पता नहीं कि किस विषय पर व्याख्यान होना है, तो आप जैसे लोगों से क्या बोलना और यह कहकर वो चल दिया। दूसरी बार किसी तरह उस फकीर को व्याख्यान के लिए तैयार किया गया और फिर जब वो मंच पर आया तो उसने फिर पूछा कि दोस्तों क्या आप जानते हैं कि मैं आज किसके बारे में बताने आया हूँ? इस बार पहली गलती को ध्यान में रखते हुए सब ने कह दिया कि “हाँ” हम जानते हैं। फिर उस फकीर ने कहा कि जब आप जानते ही हैं तो फिर कुछ भी बोलना व्यर्थ है क्योंकि आप सभी ज्ञानी हैं और वो फिर मंच से उतरकर चल दिया। गाँव वालों ने योजना बनाई थी कि अबके “ना” कोई भी नहीं कहेगा लेकिन “हाँ” भी व्यर्थ चली गयी। फिर सब लोग उस फकीर के पास आमंत्रण लेकर पहुंचे और बोले हमसे भूल हो गयी कृपया आप आयें और हमें कुछ उपदेश दें। वो तो फकीर था ही, अपनी करुणा के कारण वो फिर आया और आते ही उसने फिर पूछा कि क्या आपको पता है कि आज मैं क्या बोलने वाला हूँ? आधे लोगों ने कहा “हाँ” और आधे लोगों ने “ना” में उत्तर दिया। वो फकीर फिर बोला कि जिनको पता है, वो उन लोगों को बता दें जिन्हें पता नहीं हैं। मेरा कुछ कहना व्यर्थ ही जाएगा, अब बोलने का कोई मलतब ही ना बचा और वो फिर मंच से उतरकर चल दिया।
चौथी बार उस गाँव के लोगों की हिम्मत नहीं हुई कि उस फकीर को आमंत्रित करें क्योंकि गाँव वालों के पास तीन ही उत्तर थे, जो वो दे चुके थे और वो तीनों ही व्यर्थ गए। चौथा उत्तर उन लोगों के पास था ही नहीं।
मेरे प्यारे दोस्तों ये प्रश्न हम सबके लिए ही है:
“क्या आपके पास है चौथा उत्तर?
दोस्तों ये चौथा उत्तर वो उत्तर है जो ना तो किसी शास्त्र में मिलेगा और ना ही किसी ग्रंथ में। दुनिया के किसी भी मंदिर, मस्जिद या तीर्थ में ये उत्तर नहीं मिलने वाला। जीवन को जानने के लिए कहो या सत्य तक पहुँचने के लिए, परमात्मा की खोज हो या स्वयं की खोज या फिर आनंद की तलाश, इन सबके लिए वो चौथा उत्तर जरूरी है जो उस गाँव वालों की तरह हमारे पास भी नहीं है। यदि वो उत्तर उस गाँव के लोगों ने दिया होता तो वो फकीर बहुत कुछ दे जाता उनको। वो चौथा उत्तर था उनका चुप रह जाना अर्थात “मौन” है वो चौथा उत्तर। जो मौन होना जान जाए, उसका जानना शुरू हो जाता है। हम बोलने में समर्थ है लेकिन चुप रहने में नहीं। हम शब्दों के साथ खेलने में समर्थ हैं, इसलिए जीवन गंवा देते हैं। जानने के लिए मौन प्रवर्ति चाहिए लेकिन हम तो बोलते ही रहते हैं, जब जागे हों तब भी और जब सोये हों तब भी। सुन केवल वही पाता है जो वास्तव में चुप है, मौन में उतर गया है। जो अपने भीतर भी बोल रहा है वो कैसे कुछ सुन सकेगा? ईश्वर, आत्मा, परमात्मा जैसे शब्द हमारे लिए केवल शब्द ही हैं, हमारा अनुभव नहीं क्योंकि अनुभव होता है मौन में। और मौन रहना हमें कभी आया ही नहीं क्योंकि शब्द तो जन्मों से इकट्ठा किए हैं हमने और जन्मों फिर दोहराये है हमने। बल्कि सच कहा जाए तो ये कहना अनुचित नहीं होगा कि ईश्वर, आत्मा-परमात्मा जैसे शब्द भी हमारे भय या झूठे संतोष के प्रतीक हैं, इनसे कभी वास्ता नहीं पड़ा हमारा। कभी इनको अनुभव किया जाए ऐसा सोचा ही नहीं हमने। कभी प्रार्थना भी की तो ईश्वर को निर्देश दिये हैं हमने कि ये जो मेरे साथ हो रहा है, ये गलत है, इसे सही कर। जो हो रहा है वो गलत है, और तू वो कर जो मैं कह रहा हूँ। अरे ये प्रार्थना है या आदेश? मौन ही असली प्रार्थना है।
सोचिए जरा कि कभी वास्तव में प्रार्थना में उतरे हैं या हमेशा उधार के शब्दों का ही सहारा लिया है उस परमपिता को आदेशित करने के लिए? ये उत्तर भी भीतर के मौन से ही मिलेगा......................

Sunday, 13 March 2016

जीवन की प्रत्येक क्रिया तन्त्रोक्त क्रिया है॰यह प्रकृति,यह तारा मण्डल,मनुष्य का संबंध,चरित्र,विचार,भावनाये सब कुछ तो तंत्र से ही चल रहा है;जिसे हम जीवन तंत्र कहेते है॰जीवन मे कोई घटना आपको सूचना देकर नहीं आता है,क्योके सामान्य व्यक्ति मे इतना अधिक सामर्थ्य नहीं होता है के वह काल के गति को पहेचान सके,भविष्य का उसको ज्ञान हो,समय चक्र उसके अधीन हो ये बाते संभव ही नहीं,इसलिये हमे तंत्र की
शक्ति को समजना आवश्यक है यही इस ब्लॉग का उद्देश्य है.


गुरु को आदर देना चाहिए, ऐसा अगर आप मानते हैं, तो इसका अर्थ यह हुआ कि आदर देने के लिए विद्यार्थी स्वतंत्र है। दे, तो दे। न दे, तो न दे। और अगर आप ऐसा मानते हैं कि गुरु है ही वही जिसको आदर दिया जाता है, तो विद्यार्थी स्वतंत्र नहीं रह जाता। मेरी दृष्टि में तो गुरु वही है, जिसे आदर दिया जाता है। अगर विद्यार्थी आदर न दे रहे हों, तो बजाय इस चिंता में पड़ने के कि विद्यार्थी कैसे आदर दें, हमें इस चिंता में पड़ना चाहिए कि गुरु हैं या नहीं हैं! गुरु खो गए हैं।
गुरु हो, और आदर न मिले, यह असंभव है। आदर न मिले, तो यह संभव है कि गुरु वहा मौजूद नहीं है। गुरु का अर्थ यह है कि जिसके पास जाकर श्रद्धा— भक्ति पैदा हो। जिसके पास जाकर लगे कि झुक जाओ। जिसके पास झुकना आनंद हो जाए। जिसके पास झुककर लगे कि भर गए। जिसके पास झुककर लगे कि कुछ पा लिया। कहीं कोई हृदय के भीतर तक स्पंदित हो गई कोई लहर।


विभत्स हूँ .. विभोर हूँ ... मैं ज़िंदगी में चूर हूँ ... 
घनघोर अँधेरा ओढ़ के मैं जन जीवन से दूर हूँ .. शमशान में हूँ नाचता .. मैं मृत्यु का ग़ुरूर हूँ .. 
साम दाम तुम्हीं रखो .. मैं दंड में सम्पूर्ण हूँ .. 
चीर आया चरम मैं .. मार आया मैं को मैं .. 
मैं मैं नहीं मैं भय नहीं .. जो तू सोचता हैं वो ये हैं नहीं ..काल का कपाल हूँ .. मूल की चिंघाड़ हूँ .. 
मैं आग हूँ मैं राख हूँ .. मैं पवित्र रोष हूँ .. 
मुझमें कोई छल नहीं .. तेरा कोई कल नहीं .. 
मैं पंख हूँ मैं श्वास हूँ .. मैं ही हाड़ माँस हूँ .. 
मैं नग्न हूँ मैं मग्न हूँ .. एकांत में उजाड़ में .. 
मौत के ही गर्भ में हूँ .. ज़िंदगी के पास हूँ .. अंधकार का आकार हूँ .. प्रकाश का प्रकार हूँ ..
मैं कल नहीं मैं काल नहीं वैकुण्ठ या पाताल नहीं

मैं मोक्ष का ही सार हूँ .. मैं पवित्र रोष हूँ .. मैं ...हूँ .. .

Saturday, 12 March 2016

एक प्रेमी-युगल शादी से पहले काफी हँसी मजाक और नोक झोंक किया करते थे।
शादी के बाद उनमें छोटी छोटी बातो पे झगड़े होने लगे।
कल उनकी शादी की सालगिरह थी,पर बिवि ने कुछ नहीं बोला वो पति का रिस्पॉन्स देखना चाहती थी।सुबह पति जल्द उठा और घर से बाहर निकल गया।बिवि रुआँसी हो गई।
दो घण्टे बाद दरवाजे पर घंटी बजी,वो दौड़ती हुई जाकर दरवाजा खोली।दरवाजे पर गिफ्ट और बकेट के साथ उसका पति था।
पति ने गले लगा के सालगिरह विश किया।फिर पति अपने कमरे में चला गया। तभी पत्नि के पास पुलिस वाले का फोन आता है की आपके पति की हत्या हो चुकी है,उनके जेब में पड़े पर्स से आपका फोन नम्बर ढूंढ के कॉल किया।
पत्नि सोचने लगी की पति तो अभी घर के अन्दर आये है।
फिर उसे कही पे सुनी एक बात याद आ गई की मरे हुये इन्सान की आत्मा अपना विश पूरा करने एक बार जरूर आती है।
वो दहाड़ मार के रोने लगी।उसे अपना वो सारा चूमना, लड़ना, झगड़ना,नोक-झोंक याद आने लगा।उसे पश्चाताप होने लगा की अन्त समय में भी वो प्यार ना दे सकी। वो बिलखती हुई रोने लगी।जब रूम में गई तो देखा उसका पति वहाँ नहीं था।
वो चिल्ला चिल्ला के रोती हुई प्लीज कम बैक
कम बैक कहने लगी की अब कभी नहीं झगड़ूंगी।
तभी बाथरूम से निकल के उसके कंधे पर किसी ने हाथ रख के पूछा क्या हुआ?
वो पलट के देखी तो उसके पति थे।वो रोती हुई उसके सीने से लग गइ फिर सारी बात बताई।तब पति ने बताया की आज सुबह उसका पर्स चोरी हो गया था।फिर दोस्त की दुकान से गिफ्ट उधार लिया।
।।जिन्दगी में किसी की अहमियत तब पता चलती है जब वो नहीं होता,
हमलोग अपने दोस्तो,रिश्तेदारो से नोकझोंक करते है,
पर जिन्दगी की करवटे कभी कभी भूल सुधारने का मौका नहीं देती।
हँसी खुशी में प्यार से जिन्दगी बिताइये,
नाराजगी को ज्यादा दिन मत रखिये।
🌸🌹जय श्री राम 🌹🌸

Thursday, 10 March 2016

क बहुत समृद्ध महिला अपने चिकित्सक के पास गई। बीमारी उसकी ठीक हो गई थी, चिकित्सक को उसकी फीस चुकाने गई थी। तो उसने एक बहुमूल्य रत्नजटित झोले में कुछ रखकर चिकित्सक को भेंट किया।
चिकित्सक ने कहा कि यह तो ठीक है, लेकिन मेरी फीस का क्या? न तो चिकित्सक समझ सका कि रत्नजटित है, उसने तो समझा कि है बस कांच। कौन रत्नजटित झोले देता है भेंट! और यह महिला सस्ते में निकली जा रही है। उसने हिसाब लगा रखा था, कम—से—कम तीन सौ रुपये उसकी फीस थी। और यह झोला देकर ही बची जा रही है। तो उसने कहा कि झोला तो ठीक है, तुम्हारे प्रेम का उपहार स्वीकार करता हूं लेकिन मेरी फीस का क्या?
उस महिला ने पूछा. तुम्हारी फीस कितनी है? तो ज्यादा से ज्यादा जो वह बता सकता था, उसने कहा, तीन सौ रुपया।
उस महिला ने झोला खोला, उसमें कम—से—कम दस हजार के नोट थे, तीन सौ रुपये निकाल कर चिकित्सक को दे दिए, बाकी रुपये और झोला लेकर वह वापिस चली गई। अब उस चिकित्सक पर क्या गुजरी होगी, तुम सोचते हो! उस दिन के बाद बीमार ही हो गया होगा। उस दिन के बाद फिर उसकी चिकित्सा मुश्किल हो गई होगी। कितना न पछताया होगा! दस हजार रुपये लेकर आयी थी महिला देने और यह तो उसे बाद में पता चला मित्रों से कि वे कांच के टुकड़े न थे, हीरे—जवाहरात थे। मगर उसने सोचा था कि तीन सौ बहुत बड़ी—से—बड़ी फीस।
मांगोगे भी तो क्या मांगोगे? बड़ी से बड़ी मांग भी बड़ी छोटी—से—छोटी होगी, खयाल रखना। इसलिए न मांगो तो अच्छा। वह जो दे, अहोभाव से स्वीकार कर लेना। फायदे में रहोगे। मांगोगे, नुकसान में पड़ोगे। और दुर्भाग्य ऐसा है कि शायद तुम्हें कभी पता भी नहीं चलेगा कि तुम्हें क्या मिल सकता था और क्या मांगकर तुम लौट आए! क्या पा सकते थे, पता भी न चलेगा। उस चिकित्सक को तो खैर पता भी चल गया, तो दुबारा ऐसी भूल न करेगा। मगर तुम्हें पता भी न चलेगा। कौन तुम्हें बताएगा?