Friday, 19 February 2016

भाग्य लिखा हुआ नहीं है, रोज रोज लिखना पड़ता है

भाग्य की पुरानी धारणा कहती है, लिखा हुआ है; और किसी और ने लिखा है, तुमने नहीं। मैं तुमसे कहना चाहता हूं? भाग्य लिखा हुआ नहीं है, रोज रोज लिखना पड़ता है। और किसी और के द्वारा नहीं, तुम्हारे ही हाथों से लिखा जाता है। यह हो सकता है कि तुम इतनी बेहोशी में लिखते हो कि अपने ही हाथ पराए मालूम होते हैं। यह हो सकता है, तुम इतनी अचेतन अवस्था में लिखते हो कि लिख जाते हो तभी पता चलता है कि कुछ लिख गया। तुम अपने को रंगे हाथ नहीं पकड़ पाते। तुम्हारे होश की कमी है। लेकिन कोई और तुम्हारा भाग्य नहीं लिखता है।

अगर कोई और तुम्हारा भाग्य लिखता है, तो सब धर्म व्यर्थ। फिर तुम क्या करोगे? तुम तो फिर असहाय मछली की तरह हो। फेंक दिया मरुस्थल में तो मरुस्थल में तड़पोगे, किसी ने डाल दिया जल के सरोवर में तो ठीक। फिर तो तुम दूसरों के हाथ का खिलौना हो, कठपुतली हो। फिर तो तुम मुक्त होना भी चाहो तो कैसे हो सकोगे? अगर भाग्य में मुक्ति होगी तो होगी, न होगी तो न होगी।

भाग्य की मुक्ति भी क्या मुक्ति जैसी होगी? किसी को मुक्त होना पड़े मजबूरी में, तो मुक्ति भी परतंत्रता हो गयी। और कोई अपने चुनाव से नर्क भी चला जाए, कारागृह का वरण कर ले, तो अपना वरण किया हुआ कारागृह भी स्वतंत्रता की सूचना देता है।

मुक्ति कोई स्थान नहीं। कारागृह भी कोई स्थान नहीं चुनाव की क्षमता में मुक्ति है। चुनाव की क्षमता न हो और आदमी केवल भाग्य के हाथ में खिलौना हो, तो फिर कोई मुक्ति नहीं। और अगर मुक्ति नहीं, तो धर्म का क्या अर्थ है! फिर तुमसे यह कहने का क्या अर्थ है कि ऐसा करो, कि पुण्य करो, कि जागो। जागना होगा भाग्य में तो जागोगे। न जागना होगा, सोए रहोगे। कोई और जगाएगा, कोई और सुलाका। तुम परवश हो।

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